रविवार, 27 सितंबर 2009

राहुल के चलते कस्बाई पत्रकार हुए वीआईपी



सिद्धार्थ कलहंस
अरसे बाद उत्तर प्रदेश में ये हुआ कि गांधी परिवार का चश्मोचिराग कीचड़ भरी कच्ची सड़के नाप चुपचाप गांवों में पहुंचा। बिना किसी शोर-गुल और तमाशे के। गांव में छप्पर के नीचे मजमा लगाया। दलित के घर भेली खा पानी पिया। रात साहू की दुकान से आनन-फानन में मंगा कर बनायी गयी आलू परवल की तरकारी खायी और बंसखट पर सो रात गुजारी।वाकया ये देश भर के अखबारों की सुर्खी बना और चैनलों का विशेष। पर मीडिया जगत में कुछ एसा नया हुआ जो अमूमन कभी नही होता। बड़ा पत्रकार, लखनऊ या राज्यों की राजधानी वाला थोड़ा छोटा और जिले व कस्बे वाला तो बेचारा मच्छर। बड़े स्वनामधन्य तो सीधे मुंह बात भी नही करते। इन जिले वाले बेचारों की याद तभी आती है जब बड़ा पत्रकार उनके इलाके का दौरा करता है। तब इनका काम रास्ता दिखाना या बैकगाउंडर देना होता है।मगर राहुल गांधी के मामले में तो कमाल हो गया। बिन बताए राहुल आ धमके। बस वायरलेस पर खबर थी कि राहुल अब हैदरगढ़, बाराबंकी और अब श्रावस्ती। राजधानी के बड़के पत्रकार परेशान क्या करें। एसे में वही जिलाई पत्रकार याद आए दनादन फोन घूमने लगे। बोसीदा पुरानी डायरियां जिला सूचना अधिकारी और अखबारों में जिला डेस्क देखने वाले जरिया बने फोन नंबर देने का । आमदिनों में सीधे मुंह बात न करने वाले बड़े पत्रकार आज जिलों वालों को भाई साहब कह पुकार रहे थे। क्या लोकेशन है राहुल की, कहां रुके, किससे मिले, क्या कहा, कौन साथ में है। शाम होते-होते सब्र का पैमाना छलक उठा। नेपाल की तलहटी में बसे उत्तर प्रदेश के सीमा के आखिरी जिले के एक गांव तेलहार में राहुल और लोकेशन किसी को नही। कुछ राजधानी के भाई लोगों ने गुरुवार की सुबह अखबारों के पहले पन्ने पर राहुल को सकुशल सुल्तानपुर के गेस्टहाउस पहुंचा दिया था। पर सुबह होते ही सब पर पानी फिर गया। राहुल तो वहीं गांव में ही रुक गए। खबरिया चैनल वाले सुबह रवाना होने की तैयारी में ही थे कि खबर आयी राहुल चल दिए। बारास्ते अमौसी दिल्ली जा रहे हैं। इतनी बड़ी घटना और कहीं कोई कोट नही, बाइट नही। बस काम आए तो वही जिलाई पत्रकार और कस्बे के संवाद सूत्र। अमर उजाला के श्रावास्ती संवाददाता सतीश तो मानों हीरो हो गए। समय नही उनके पास। एक फोन छूटे तो दूसरा कान पर। सबकी खबर के वही स्त्रोत। गांव के इकलौते इंटर पास और कैमरा फोन धारी रामजन्म के पास सैकड़ों मुनहार। जिले के पत्रकार आज वीआईपी हो गए। आज श्रावस्ती के पत्रकारों के नंबर हर बड़े राजधानी के रिपोर्टर के मोबाइल में दर्ज है।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

माई नी माई मुंडेर पे नाही दीख रहा है कागा

सिद्धार्थ कलहंस


लखनऊ

पितरों के श्राद्ध का आज आखिर दिन था। भूले बिसरे पितरों को तर्पण करने के लिए आज का दिन मुकरर्र किया गया था। उनके लिए जिनकी तिथियां याद न रह गयीं हों। उन सब का तर्पण आज के ही दिन करते हैं। पितरों का तर्पण तब तक अधूरा है जब तक कागभुशुण्डी जी महाराज को अन्न न खिला दें।


लखनऊ में गोमती से लेकर तालाबों, पोखरों, कुओं और यहां तक कि कॉलोनियों के हैंडपंपों तक पर श्राद्ध कर पितरों को तर्पण करने वालों की भीड़ थी। श्राद्ध के सारे अनुषष्ठान पूरे हो रहे थे पर नही मिल रहे थे तो बस कौवे। कहा गया है कि अन्न अगर कौवे ने खा लिया तो खाना सीधे पितरों के पेट में पहुंचता है। कौवों की तलाश शहर के हर कोने में हो रही थी । मगर कौवे थे कि मानों बिला गए थे। लखनऊ की 40 लाख की आबादी को कौवे खोजे नही मिल रहे थे। लोग मन मसोस कर रह गए कि पितरों को कहीं भूंखा न रहना पड़े। कुछ तो अनिष्ट की आशंका से भी ग्रस्त दिखे।


पर इसका भी इलाज यहीं मौजूद था इसी शहर में। राजधानी लखनऊ के अवैध चिड़िया बाजार नक्खास में आज मांग तीतर, बटेर या लकी कबूतर की नही थी। आज यहां कौवे हॉट सेलिंग केक थे। ककौवे पिंजरों में बंद थे और उनके चारो तरफ खरीददारों की भीड़ थी। बेंचने वाले मोल-भाव करने को भी न तैयार थे। जो मांगा वही दो नही तो आगे बढ़ो। कुछ एसा ही भाव था भाई लोगों के चेहरों पर।


कौवे 800 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक की कीमत में बिके और जम के बिके। आज के दिन काले तीतर पर काला कौवा भारी था। हालांकि चिड़िया बाजार के पुराने चिड़ियाफरोश हबीबुल्लाह का कहना है कि आज कल वैसे ही कौवे मंहगी कीमत में बिक रहे हैं। उनका कहना है कि नामर्दी के शिकार भी कौवे का गोश्त खाकर खुद को जवां महसूस करते हैं।

पुराने ललखनऊ के कई हकीम तो आजकल बूढ़ों को कौवे का गोश्त खिला कर फिर से जवानी के अखाड़े में उतारने का दावा करते हैं। डालीगंज के हाजी हकीम मोहब्बत हुसैन एनुद्दीन जरार्ह का कहना है कि कौवे के गोश्त में जो गर्मी होती है वो ढीली नसों को खोल देती है और जवान कर देती है।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

बलम अब नही जाएगा कलकत्ता

सिद्धार्थ कलहंस

बहुत मशहूर है वो कविता कि -- चंपा काले अक्षर नही चीन्हती।

और बलम को कलकत्ता चिट्ठी भेजने के नाम पर तुनक कर कहती है-- कलकत्ता पर बजर गिरे।

चंपा की दशकों पहले की चाह पूरी हो गयी। अब चंपा के बलम कमाने कलकत्ता, लुधियाना और मुंबई नही जा रहे।

हालात बदल गए हैं। उत्तर प्रदेश की मजदूरों की मंडिया सूनी हो रही हैं। सूबे के ईंट भट्ठों पर काम करने के लिए बंगाल के माल्दा जिले से मजदूर लाए जा रहे हैं। पंजाब हरियाणा में बेहतर मजदूरी दिलाने के लिए लोगों को ले जाने वाले ठेकेदार बेरोजगार हो गए हैं। पंजाब में एक एकड़ धान रोपने के लिए 2000 रुपए की खुली पेशकश भी भैय्या लोगों को नही लुभा रही है। भैय्या (पंजाब, हरियाणा और मुंबई में यूपी के लोगों का प्रचलित नाम) अब अपनी शर्तों पर काम करेंगे।दशकों से उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग और बिहार पंजाब, हरियाणा के किसानों और मुंबई के उद्योगों को मजदूर उपलब्ध कराता रहा है। सूबे के मजदूर धान और गेंहूं के सीजन में माल कमाने के लिए पंजाब और हरियाणा का रुख करते थे तो थोड़ा ज्यादा बाहर रहने का जोखिम उठाने वाले मायानगरी मुंबई की ओर जाते थे। मगर हालात बदल गए और परंपरा भी।आज उत्तर प्रदेश का मजदूर बाहर जाना तो दूर अपने गांव में भी दूसरे के खेत पर मजदूरी के लिए सहज उपलब्ध नही है।यह सारा बदलाव कई सालों में नही बस बीते तीन सालों की देन है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में रोजाना 30 रुपए पर खेतों में काम पर राजी होने वाला मजदूर अब 150 रुपए मांग रहा है और शहरों की मिलों में काम करने के एवज में यही कीमत अब 175 रुपए रोज से 200 रुपए हो गयी है।लखनऊ शहर में मोबाइल कंपनी के टावर लगाने का काम करने वाले ठेकेदार संजीव रतन सिंग का कहना है कि सूबें में मजदूरी मंहगी हो गयी है और नखरे ज्यादा। उनका कहना है कि बंगाल में नरेगा के तहत शायद काम कम मिल रहा है इसी लिए माल्दा और इस जैसे कई जिलों से मजदूर आ रहे हैं। सिंह का कहना है कि यूपी में मजदूरों के ठेकेदार अब बंगाल और उड़ीसा में कामगार तलाश रहे हैं।मजदूर नेता काजिम हुसैन का कहना है कि यह बदलाव सुखद है। वो कहते हैं कि मंहगायी लगातार बढ़ती रही पर मजदूरी नही। अब नरेगा के चलते मजदूर के पसीने की सही कीमत लगने लगी है। छह महीने पहले तक नरेगा को गरियाने वाली यूपी की मुखिया मायावती भी अब इसकी अहमियत समझ गयी हैं। आज सूबे के हर जिले में नरेगा हेल्पलाइन बना दी गयी है जहां कोई भी जॉबकार्ड न बनने, कम मजदूरी मिलने और काम न मिलने की शिकायत दर्ज करा सकता है।नरेगा ही नही, राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना, जवाहरलाल नेहरु अरबन रिनीवल मिशन जैसी कई योजनाओं ने न केवल रोजगार के रास्ते खोले हैं बलि्क मजदूरों का पलायन भी रोका है। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रंबधन विभाग के डॉ राजीव सक्सेना का कहना है कि मंदी के दौर में निर्माण के काम ठप्प होने लगे थे तो केंद्र सरकार की इन योजनाओं ने गरीब तबके को बड़ा सहारा दिया। उनका कहना है कि आज न केवल मजदूरी बढ़ी है वरन मजदूर अपनी शर्तों पर काम भी करने लगा है।

रविवार, 5 जुलाई 2009

हम जिएं तुम जियो, एनजीओ

हम जिएं तुम जियो, एनजीओ
सिद्धार्थ कलहंस
लखनऊ
पुराने दोस्त थे एक हमारे अचानक मेलजोल कम कर दिया। मैं भी परेशान कि बात क्या हो गयी। क्या गुस्ताखी हो गयी। खैर कोई हाल नही पता चला न ही किसी ने बताया कि हमारे दोस्त कहां गए। बाद में पता चला कि एनजीओ को पकड़ लिया है और आज कल मौज में हैं। वो काफी दिन बाद पकड़ में आ ही गए। यूपी प्रेस क्लब में बिरयानी बहुत बढ़िया मिलती है। वहीं पकड़ में आ गए वो हमारे मित्र। कभी लेफ्ट वाले थे सो मिलने पर तपाक से बातचीत शुरु कर देते थे। मैंने जब जम के सुनाई तो एनजीओ की महिमा बताई। बोले काम बढ़िया चल रहा है बस यार तुम पत्रकार हो गए हो तो ज्यादा क्या बताना बस मौज चल रही है। वो साथी कार में बैठ रवाना हुए और मैने साथ बैठे पीटीए के अपने मित्र अभिषेक को ये जुमला सुनाया। हम जीएं तुम जियो, एनजीओ।

बात कोई पांच साल पुरानी है। अभी चंदे पर चलने वाली और एन जी ओ के गर्भ से उपजी एक वेबसाइट पर आलोक तोमर का एक लेख देखा। तमतमा गए
आलोकजी चोर हैं। लेख चुराते हैं। कई बड़े पत्रकार उन पर आरोप लगा रहे हैं। भई मैं तो लखनऊ जैसे चपंडूक शहर का बाशिंदा पता ही नही आज कल कौन सी स्वानामध्न्य लोग पड़ारकर की थाती को आगे ले जा रहे हैं। हां आलोक तोमर पर चोरी का इल्जाम लगा तो जरुर अपने 100 किलो के शरीर में हरकत हो गयी। फिर तो सारे मामले पर गए। कमेंट पढ़े और आलोक जी का विस्फोट पर जवाब भी पढ़ा। जवाब तो किसी भी मध्यकालीन ठाकुर घराने के आदमी जैसे ही लगा। मगर मुझे फिर वही याद आया कि हम जिएं तुम जियो-एनजीओ.
आलोक जी क्यो परेशान होते हैं आप जब कोई दो गुमनाम आपको कहीं घसीटते हैं। आसमान में थूकने दो न उनको। उन पर ही गिरेगा।और गिर ही रहा है।लोग चंदे पर वैबसाइट चलाते हैं तो चलाने दो न। अरे रोजगार से तो लगे हैं। उनके लिए तुम जियो। और उनके खुद के लिए एनजीओ।और हम तो जी ही रहे हैं।

बुधवार, 13 मई 2009

हम शर्मिदां है, तेरे कातिल जिंदा हैं।

सिद्धार्थ कलहंस



मैं एक उदास, उनींदे और सुस्त से शहर बलरामपुर में दर्जा 5 में पढ़ता था जब एक दिन हमारे चचेरे चाचा हुकुम सिंह, जिन्हें हम बच्चे जालिम से कम न समझते थे, किसी एनजीओ की कि्वज प्रतियोगिता मे भाग दिलाने ले गए।घंटो के इंतजार के बाद एक सीलन भरे कमरे में जमीन पर बैठा कर कुछ सादे पन्ने दे दिए गए और साथ में कुछ निहायत ही आसान से सवाल। सवालों में से एक था, बागों का शहर किसे कहते हैं। मैंने दिमाग लगाया और लिखा लखनऊ।लखनऊ में मेरी बुआ रहती थीं। अब मरहूम। अक्सर आते थे हम लोग। मोहल्लों के नाम सुनते थे। डालीबाग, कैसरबाग, बंदरियाबाग, फूलबाग और जाने कितने बाग। कभी पूंछा किसी से तो पता चला ये बागों का शहर है। हर मोहल्ला बागों के नाम से मशहूर है।
अखबार की दुनिया में आने के बाद कुछ नए और अच्छे दोस्त बने तो उनमें से एक अजीज रवि भट्ट से एक दिन इसी मुद्दे पर ही बात की। बोले हां यहां के बाग दुनिया भर में मशहूर थे। उदास थे वो कि बाग कहां हैं अब। मैने कहा कि सरकार ने एलान किया है लखनऊ में एक लाख पेड़ लगाए जाएंगे। फिर क्यों स्यापा कर रहे हैं। एक और साथी ने कहा बीती मुलायम सरकार में तो पेंड़ लगाने का रिकार्ड बना था एक दिन में। कहां हैं वो पेंड़।बात वाजिब लगी। सो हमने भी पता करने की सोची कि कहां हैं हमारे दरख्त जो कभी लखनऊ की शान थे। न तो इस पर खबर लिखनी थी न ही कोई एसाइनमेंट था। सो खरामा-खरामा देखा। सूरते हाल कुछ यों निकले

राजधानी में बीते एक साल में 43000 पेड़ शहर को सुंदर बनाने के नाम पर काट डाले गए। शहर की सड़कों के किनारे फुटपाथ पर छायादार पेंड़ों को काट दिया गया। वजह इंटरलाकिंग ईंटो का फुटपाथ जो बनाना था। कानपुर रोड से शहर को तुरंत जोड़ देने वाली वीवीआईपी रोड पर 4786 पेंड़ काटे गए। वहां बुद्ध विहार बनना थाकल ही राजधानी में जिला जेल के हाते में लगे 1000 पेड़ों को काटने का फरमान निकला। इस पोस्ट को लिखने तक कोई 400 पेंड़ कट के जमींदोज हो गए।तहजीब के इस शहर में कोई न निकला इन बेजुबान पेंड़ों को बचाने को। पेंड़ बेजुबान थे। सो उनको कौन पूंछता। कटे। गिरे। कमीने ठेकेदारों के हाथों बिके।नीम के पेड़, अर्जुन के पेड़ और प्लाश के पेड़ कटे। लकड़ियां कौड़ी के भाव बिकीं। पयार्वरण के नाम पर दुकान चलाने वालों ने टस से मस न की।एक भी जनहित याचिका न दाखिल की गयी इस पूरे मामले पर। और हत है प्रदेश की जनता जहां एसों को भी वोट दिए जा रहे हैं।पेड़ जमीन पर हैं। अपनी कुरबानी का सबब पूंछते हैं।हमारा जवाब है। हम तो बस शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिंदा हैं।

बुधवार, 6 मई 2009

मारो हाथ बिरयानी मां


मारो हाथ बिरयानी मां
सिद्धार्थ कलहंस
नेता लोगे घूमे लागे अपन-अपन जजमानी मां

उठो काहिलों छोड़ो खिचड़ी मारो हाथ बिरयानी मां।


दिल्ली प्रदेश के एक बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी ने 4 कुंतल बिरयानी बनवा कर वोटरों को खिला डाली। इसी पार्टी के उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के प्रत्याशी रिजवान जहीर के लिए काम कर रहे लोगों के दिन के मेन्यू में बिरयानी और शाम को सालन के साथ रोटी परोसी गयी। मेरठ में तो कई दलों के लोगों ने बिरयानी जम के खिलाई। खबर है कि बाटी चोखे पर संतोष कर लेने वाले पूवार्चंल के लोगों ने भी इस बार बिरयानी को तरजीह दी और दामी प्रत्याशी इसका इंतजाम करते देखे गए। सो बकरे की अम्मां ने चुनाव भर खैर मनाना ही बंद कर दिया। मनाती भी तो कब तक हर रोज हर मिनट कटना था।
अब लखनऊ के लोग परेशान हैं कि यहां बिरयानी ही नही बंटी। सभी बड़े प्रत्याशी वैष्णव जो ठहरे। हां मतदान के पहले एक दल विशेष के प्रत्याशी की ओर से सब्जी लाने के काम आ सकने वाले झोले में सहेली और रंगबाज ब्रांड के दो देशी शराब के क्वार्टर हर गरीब मतदाता को जरुर बांटे गए। यहां मौके को भांप आखिर दिन बिरयानी परोसी गयी पर केवल कुशलता से चुनाव में लगने वालों को।
मौलानाओं ने राजधानी लखनऊ में ही प्रेस वार्ता कर सारे मुसलमानों का एजेंडा तय करने का काम किया। 50 से ज्यादा मौलाना इस काम में जुटे। एक अखबार खबर देता है और खुद मुसलमान कहते हैं कि 10 लाख से 5000 तक पर मौलाना बिके और कुछ तो पंड़वे (भैंस का नवजात) की बिरयानी पर ही बिक गए।
मौके को भुनाने में चौथे खंभे के लोग कहां पीछे रहते। हालांकि इस बार उनके चेहरे पर थोड़ा उदासी थी। ज्यादातर जगहों पर मालिकान देश में लोकतंत्र कायम रखने का सौदा पहले ही कर चुके थे। सो बेचारे संवाददाता अधेले पर टूटे। कुशल नेताओं ने उनके दाम अलग-अलग लगाए पर भाव किसी को नही दिया।
लोकतंत्र के इस महाकुंभ में में 45 दिन जनता जनार्दन के नाम रहे। मंहगी गाड़ी में घूमने वाले दरवाजे-दरवाजे पसीना बहाते नजर आए। गांवों में तो खूब तंज भी सहे। कहीं ताली तो कहीं गाली मिली। हां अपने आरामगाह मे जाकर उनने सबको गाली ही सुनायी। और ये भी कहा कि जीतने पर हिसाब बराबर कर दूंगा। पर क्या करें वोट का सवाल था सो सब सुनना पड़ा।
मगर बिरयानी चुनाव में हिट रही। नेताजी जीतेंगे तो बिरयानी की दावत तो पक्की और अगर हार गए तो अंगूर की बेटी के साथ भी बिरयानी मौजूद होगी।

बुधवार, 29 अप्रैल 2009

चल खुसरो घर आपने

सिद्धार्थ कलहंस


मैं कोई नजूमी नही और न ही मेरे पास अरबी परी कथाओं में बताया जाने वाला हाजराती शीशा है। पर इस सब के बावजूद दीवारों पे लिखी इबारत को पढ़ना मुझे बखूबी आता है। पूंछता हूं आप सबसे। क्या है नया इस चुनाव में। जवाब अलग-अलग हैं। पोस्टर बैनर गायब हैं। लाउडस्पीकर का शोर गुम है। कुछ कहते हैं कि कंडीडेट परेशान नही कर है चुपचाप प्रचार हो रहा है।सच ही कहा है साधो ये मुरदों का गांव। कोई एक बड़े बदलाव को न देख पा रहा है न सुन। या यों कहें कि नजर ही नही जा रही इस चुप्पे बदलाव पर जो आहिस्ता-आहिस्ता दाखिल हो रहा है।सर्वे, कड़े पहरे के बाद भी जो हुए, नेताओं के नेप्थय में दिए गए बयान और खबर नवीसों की चांडूखाने में की गयी गपशप में एक बात उभर कर आ रही है। कांगेस और बीजेपी इंप्रूव कर रहे हैं। अब असल पेंच यही है। क्या कुछ कर डाला इन दोनो राष्ट्रीय दलों ने जो थोड़ा सुधार होगा इनके प्रर्दशन मेंअरे इनकी करनी तो जैसी है उस हिसाब से और नीचे जाना चाहिए पर नही हो रहा न।दो दशक से क्षेत्रीय दलो की करामात देख रही है प्रदेश की जनता। इसी दौरान मंडल, कमंडल और जाने क्या-क्या गुजर गए यूपी की छाती से। विकास का नाम नही, दबाव की राजनीति, दलबदल, गुंडाराज, ठेका पट्टा, पढ़ाई का सत्यानाश, उद्योगों का पलायन, प्रतिभा का पलायन, भाई भतीजावाद और सबसे बड़ा भ्रष्टाचार। गर सीटों बढ़ जाएं और त्रिशंकु लोकसभा हो तो वहां भी सौदेबाजी। आखिर कभी तो अंत होना था। गली मोहल्लों, चौरोहों, नुक्कड़ पर खड़े लोग, चाय बीड़ी फूंकते गरीब, ठंडे दफ्तरों में अलसाते लोग और व्यवस्था के प्रति गुस्से से भरे लोग अब क्षेत्रीय नही राष्ट्रीय दलों के साथ जाने की बात कर रहे हैं। बेड़ा गारद हो इन राष्ट्रीय दलों के रहनुमाओं का जो दीवार पर लिखी इबारत को न पढ़ सके। उलटबासियों और कोरी लफ्फजी में भरमाते रहे। जेपी की संपूर्ण क्रांति के बाद जनमानस में उपजे इस उफान को न भुना सके। शायद नैतिक साहस नही होगा कि जनता के दिल तक जा सकें और उसकी भी आंखों मे आंखें डाल बात कर सकें।पर हे अपंग, लाचार और बीमार दिमाग हमारे राष्ट्रीय दलों के रहनुमा जनता के क्रोध के चलते तुम्हें मिलने वाली बढ़त मुबारक।

गुरुवार, 26 मार्च 2009

नींद क्यों रात भर नही आती

सिद्धार्थ कलहंस


बनारस की तंग गलियों वाले मोहल्ले बजरडीहा के कई पुराने बाशिंदे आजकल नींद न आने की वजह से परेशान हैं। कुछ एसा ही हाल मदनपुरा इलाके का है जहां डॉक्टरों के यहां अनिद्रा की शिकायत करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। दर असल इन दोनो इलाकों के पुराने लोग हमेशा करघे की खटपट की लोरी सुन कर सोया करते थे। करघे की खटपट कहीं गायब हो गयी है तो कहीं मध्यम पड़ गयी है। डॉक्टरों का कहना है कि बाडीक्लाक में परिवर्तन नींद पर ही सबसे पहले असर डालता है सो यहां लोगों को नींद न आने की बीमारी आम हो गयी है।शिव की नगरी बनारस में इन्हीं दो मोहल्लों में कभी 10000 से ज्यादा करघे थे और कुंजगली,नीचीबाग व गोलघर में बुनकर माल लेकर खुद आते थे और सट्टी पर माल बेंचा करते थे। सिल्क िनयार्तक रजत सिनर्जी का कहना है कि सट्टी कारीगर और खरीददार के बीच सीधा संवाद स्थापित होने का बड़ा जरिया था। यहां सट्टी लगवाने वाला बड़ा दुकानदार सौदा तय होने पर 3.25 फीसदी कमीशन ले लेता था।
आज गोलघर के सबसे बड़ी सट्टी वाले कारोबारी ब्रजमोहन दास का काम ठप्प जैसा ही है। कमोबेश यही हाल बाकी सट्टी लगवाने वालों का है। नीचीबाग के हैंडलूम साड़ी बेंचने वाले राजेश गुप्ता से कारोबार का हाल पूंछा तो दाशर्निक सा जवाब दिया कि बाजार की चला-चली की बेला है। उनका कहना है कि कारीगर के पास काम नही है और व्यापारी के पास आर्डर नही।
इस तरह धंधा कब तक चलेगा। मदनपुरा मोहल्ले में जब हमने बुनकरों से संवाद स्थापित करना चाहा तो पता चला कि कई सारे लोग दश्शवमेध घाट के ठीक पहले मंडी में अंडा बेंचकर गुजारा कर रहे हैं। तो कुछ लोग घाटों पर आने वालों को भेल पुरी बेंच कर पेट पालने में लगे हैं। एसे ही एक बुनकर स्वालेह मियां से बात की तो पता चला कि धंधा खात्मे की ओर है। उनका कहना है कि हैंडलूम का मुशि्कल काम करुवा बूटी करने वाले कारीगर को 100 रुपए रोज की मजदूरी पाना आसान नही है। इसके ठीक उलट ईंट ढोने वाला अकुशल मजदूर दिन भर में 130 रुपए घर ले जाता है। इन हालात में करघे पर कारीगर क्यों रुकेगा।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

मैं और मेरी तन्हाई

घरों को छोड़ कर तन्हाइयाँ कहां जाएं,
निकल से जिस्म से परछाईयाँ कहां जाएं।

जहां भी जाऊं मेरे साथ-साथ जाती हैं,
मेरे बगैर ये रुसवाईयां कहां जाएं।

ये किस तलाश ने पागल सा कर दिया है इन्हें,
भटक रही हैं जो पुरवाईयाँ कहां जाएं।

दोस्त भारत भूषण पंत आपको सलाम

बुधवार, 4 मार्च 2009

मंदी में भी फलेगी झंडी

चुनावी सहालग में हजारों के चूल्हे भी जलेंगे

सिद्धार्थ कलहंस

लखनऊ, 4 मार्च
चुनाव आते ही दुकानें सज गयी हैं और हजारों के लिए रोजगार भी मुहैय्या हो रहा है। चुनावी प्रचार के सामानों के लिए मशहूर लखनऊ और कानपुर के कारोबारी मंदी के इस दौर में भी अच्छी कमाई के बारे में आश्वस्त हैं। उनका मानना है कि चुनाव आयोग की सख्ती के चलते लोग बड़ी होर्डिंगों के बजाए बिल्ला, बैनर और झंडे को तरजीह देंगे। चुनाव आयोग का खौफ माहौल में इस कदर तारी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी के आने की खबर सुनते ही मंगलवार रात से सारा प्राशासनिक अमल होर्डिंगों को हटाने में चुट गया। चुनाव प्रचार का सामान तैयार करने वालों का मानना है कि इस बार अकेले उत्तर प्रदेश में 81 लोक सभा सीटों में हर एक पर कम से कम 50 लाख रुपए की प्रचार सामाग्री हवन होगी। दिल्ली और पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश व बिहार से मिलने वाले आडर्र को जोड़ लें तो इस साल का कारोबार 140 करोड़ रुपए को पार कर जाएगा।

कारोबारियों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार का सामान बाकी राज्यों के मुकाबला खासा सस्ता है और यही वजह है कि दिल्ली से लोग यहां आकर खरीददारी करते हैं और आर्डर देते हैं। मसलन लखनऊ में कपड़े का झंडा 2 रुपए से शुरु होकर 14 रुपए तक मिल जाता है जबकि यही झंडा दिल्ली में कम से कम 4 रुपए का मिलता है। लखनऊ में स्टीकर 80 पैसे का मिल रहा है और परचे तो 300 रुपए में एक हजार छप जाते हैं। कपड़े का बैनर यहां 28 रुपए और फ्लेक्स का बैनर 55 रुपए मीटर बन जा रहा है। चुनावी सामान के कारोबारी सोहन लाल जायसवाल का कहना है कि बोर्ड की परीक्षा चल रही है इस लिए उम्मीदवार माइक नही प्रचार सामाग्री के भरोसे ज्यादा हैं। उनका कहना है कि पार्टी के चुनाव निशान वाली साड़ी जो 70 रुपए में मिल रही है ज्यादा डिमांड में रहेगी।

लखनऊ के एक और बड़ी विज्ञापन एजेंसी के मालिक रजत श्रीवास्तव का कहना है कि मंदी के बावजूद लोगों का चुनावी खर्च बढ़ा है और इसी से कारोबार भी बढ़ेगा। उनका कहना है कि बहुजन समाज पार्टी ने एक साल पहले ही अपने प्रत्याशी तय कर दिए जिसके चलते चुनाव से पहले ही प्रचार का सामान बिकने लगा।

रविवार, 1 मार्च 2009

भाई खोजो काले बंदर को

अब खेल काले बंदर का

सिद्धार्थ कलहंस


माडिया जगत के मेरे दोस्तों कल एक फिल्म देखने गया नाम थी दिल्ली 6. बेटे ईशान का कहना था कि पापा मश्कअली वाला गाना इसी में है। गाना सुना था और पुराना लखनउवा तो कबूतरों का शौक भी सो चला गया। अभिषेक बच्चन बढिया लड़का है। काफी अच्छा काम है उसका। भाई ज्यादा प्रस्तावना लिखने का मन नही। जो मैं कहना चाहता हूं सुन लो। फिल्म में एक काले बंदर का जिक्र है जिसने दिल्ली में आतंक मचा रखा है। दारु की फिक्र थी और जल्दी घर जाने की भी सो फिल्म मे मन कम लग रहा था। अचानक स्क्रीन पर आईबीएन 7 दिखा और एक काले बंदर का जिक्र। आंखे खोल कर बैठ गया। फिर तो सारी फिल्म काले बंदर के आगे पीछे। राकेश मेहरा एक मायनें में बेहतर फिल्मकार हैं। सुपर इंपोजकर फिल्म को ताकत वो देते हैं। मैंने अक्स देखी फिर रंग दे बसंती और अब दिल्ली 6। मेरे पुराने दोस्त आकाश वर्मा के पिता रवीन्द्र वर्मा ने एक बार उनकी तारीफ की। पता नही क्यों उन जैसा होना चाहा पर हो न सका। खैर उन फिर कभी बात होगी। अभी बात काले बंदर की। काला बंदर दिल्ली में आतंक मचा रहा था और आखिर में जैसा फिल्मों में होता है वही हुआ। नायक काले बंदर का लबादा पहन नायिका को जकड़ता है और फिर लबादा हटाता है। उधर पुरानी दिल्ली में काले बंदर को लेकर दंगा मचा है। कोई उसे हिंदु तो कोई मुसि्लम करार दे रहा है। है न रोचक बात। जानवर का गर धर्म हो तो क्या कहना सुअर मुसि्लम इलाके में जाए तो मार दिया जाए और गाय पर खरोंच लग जाए अपने लखनऊ के चौक इलाके में तो बम चल जाए। पर जानवर ता खमोश हैं। कोई जात नही धर्म नही। काले बंदर की भी कोई जात नही। अंत में फिल्मकार कहता है कि अपने अंदर का काले बंदर को पहचानो। मीडिया ने बनाया काले बंदर को। आज जब हम से कहा जा रहा है कि अपने अंदर के काले बंदर को पहचानो तो गिरेबान में झांकना पड़ रहा है।पत्रकारों एक बड़ी आसान बात कि हम कह दें कि साले ये टीवी वाले ये सब नाटक करते हैं पर जरा सोचें। कभी बाईलाइन के दबाव में कभी संपादक के जोर पर कितनी बार खुद काला बंदर बनाते हैं और हर बार खुद भी बनते हैं। टीवी तो आसमान से नही टपका है और वहां बड़े निर्णायक पदों पर वही लोग हैं जो हमारे बीच से गए हैं। हम प्रिंट मीडिया के लोग सबसे बड़े काले बंदर हैं जो समाज में खौफ भी भरते हैं और कौतूहलता भी।दोस्त मैं देश के बड़े अखबार में संवाददाता था और वहां जाने के बाद सबसे पहले मेरी एक खबर छपी पहले पन्ने पर आल इंडिया। खबर के लिए मैं भी काला बंदर बना और काले बंदर को बनाया भी। बता नही पा रहा हूं क्योकि अभी 40 का हूं और कई साल चाकरी करनी है। पर एक बात कि एक बकवास सी खबर आज भी मेरे नाम पर हर सर्च इंजन पर सबसे ज्यादा हिट के तौर पर मिलेगी। बड़ा खुश था मैं कि देखो देश विदेश के कितने लोग फोन कर रहे हैं खबर के बारे में। लंदन के एक चैनल ने तो इंटरव्यू तक ले डाला हमारा। मगर आज हम शमिर्दां हैं कि काला बंदर जिंदा है।कल ही मेरे बगल में एक बड़ी प्रेस वार्ता में मध्य प्रदेश के एक बड़े अखबार के साथी संवाददाता बैठे थे। एक सनसनी की बात बताने लगे। अचानक उनका गोरा सुंदर चेहरा मुझे काला लगने लगा। थोड़ी देर में वही काला चेहरा बंदर की शक्ल में बदल गया। मैं उठा जाकर अपने मित्र अंबरीष को फोन किया बात किसी और बिषय पर की कैसे भी काले बंदर से छुटकारा पाना था। मेरे ब्लागर दोस्तो आप मदद करो। जब ब्लाग बनाया तो संजीत भाई तुरंत मदद को आए पहली पोस्ट का लोगों नें खूब स्वागत किया तो दोस्तों अब बताओ। जहां जा रहा हूं हर कोई काला बंदर दिख रहा है। हद तो तब हो गयी जब कल शेव बनाते समय खुद की शक्ल जो भगवान की दया से सांवली सी है काली दिखने लगी और फिर एक बंदर भी दिखने लगा। डर के मारे अंदाज से शेव बना डाली। अब क्या करें भाई काला बंदर तो हर जगह है। नही जाने वाला है वो इस दुनिया से। मेरी गुजारिश है दोस्तों खोजो काले बंदर को मिटाओ नही उसको बस पिंजरें में डाल दो। पुरानी कहावता है कि आग का डर बना रहे इस लिए पानी का रहना जरुरी है। पर हमारे अंदर के काले बंदर को भगा दो भाई। बच्चों को न बताना डर जाएंगे।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

य़ूपी भर के पत्रकारों के नंबर हमारे पास

यूपी के पत्रकारों की मीडिया डायरेक्टरी का विमोचन

सिद्धार्थ कलहंस

लखनऊ
उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। सबसे ज्यादा सांसद यहीं से चुने जाते हैं सो खास तो है ये यूपी। अब यहां के सबसे बड़े पत्रकार संगठन यूपी वर्किंग जर्निल्स्ट यूनियन ने पत्रकारों के प्रदेश भर के सभी जिलों से फोन नंबर ले एक डायरेक्टरी छापी है। इसका महत्व इस लिए बढ़ गया है क्योंकि पहली बार सरकार की अपनी डायरी में पत्रकारों के नाम गायब कर दिए गए हैं। चुनाव के साल में बड़ी जरुरत थी पत्रकारों के नंबर पर अफसोस आजादी के बाद पहली बार सरकार ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों के नंबर भी नही छापे। खैर यूपी यूनियन के अध्यक्ष हसीब भाई ने मेहनत कर जिलों - जिलों से पत्रकारों के नंबर जुटाए, राजनेताओं के नंबर लिए और प्रमुख अधिकरियों के नंबर जुटा उन्हें छापा। वो बधाई के पात्र हैं। तो साथियों यूपी के प्रेस जगत से जुड़े हर नंबर, हर जिले के,राजनेताओं के, मंत्री, सांसद, विधायक के और महत्व के लोगों के सब जानकारी मिलेगी इसी डायरेक्टरी में। यूनियन का खर्च ज्यादा हो गया और डायरेक्टरी 160 पन्ने की मोटी सो दाम रख दिया है 60 रुपए। मिलेगी यूपी प्रेस क्लब में, लखनऊ में दारुलशफा में, यूनिवर्सल में और बहुत से जिलों में भी। वैसे भी मंगाना हो तो फोन पर मांगे (0522)2616520 पर
सहयोग मिलेगा ये आशा है।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

एक हैं डॉ वजाहत रिजवी

एक हैं डॉ वजाहत रिजवी
सिद्धार्थ कलहंस
दो दिन पहले यशवंत के भड़ास फॉर मीडिया पर पढ़ा डॉ िरजवी को उत्तर प्ररदेश कर्मचारी सहित्य परिषद का गालिब पुरस्कार पाने की खबर। खबर थोड़ी पुरानी जरुर थी पर सम्मान तो सम्मान है और वो भी रिजवी साहब को। उत्तर प्रदेश के मुखिय के मीडिया सेंटर के प्रभारी हैं कई साल से। वहीं कई साल पहले का परिचय है। देखता था राज्य के हेडक्वार्टर पर मान्यता प्रराप्त पत्र्रकार अक्सर जब नारज होत तो अपनी कुंठा उन पर ही निकल दिया करते थे। रिजवी साहब चुपचाप सब सुनते थे। और मुस्कराते रहते थे। सबकी शिकायत का निवारण करते रहते थे। पत्र्रकारों की हर शिकायत को आज भी बदस्तूर सुनते हैं और जो भी बन पड़े करते रहते हैं। उनकी लेखन की प्रतिभा के बारे में ज्यादा पता नही था। एक बार किसी ने बताया था कि सरकारी ऊर्दू पत्रिका नया दौर का संपादन भी वो करते हैं। बहुत बाद में एक बार उसी पत्र्रिका का 1857 पर विशेष अंक निकला उसकी समीक्षा पढ़ी इंडियन एक्सप्रेस में तब वाकिफ हुआ उनके काम से। पहले जो बात दिमाग में आई वो ये कि दिन भर की मशक्कत के बाद कहां से समय निकाल लेते हैं। जिज्ञासा थी इस लिए एक बार पूंछा भी। मुस्करा के बोले सब हो जाता है। शौक है तो लिखने का समय भी निकाल लेते हैं। राज्य सरकार ने उनकी प्रतिभा का सम्मान किया खुशी हुयी। उम्मीद है कि वो अपने लिखने के काम को जारी रखेंगे।

शनिवार, 21 फ़रवरी 2009

आजादी का एक और सिपाही नही रहा, देह दान की

तिवारी नही रहे। आज ही अखबार में खबर पढ़ी,कोई साथी एेसा नही जो मरने के तुरंत बाद ही यह खबर देता। मेरा नाता उनसे बहुत कम था। जो था वो यह कि देश के जाने माने पत्रकार अंबरीष कुमार एक लखनऊ यूनिवसिर्टी थिंकर्स काउंसिल बना गए थे जिसमें तिलक छात्रावास में रहने वाले अपने सीनियर राजेंद्र तिवारी मुझे घसीट ले गए थे। चंद्र दत्त तिवारी घनघोर गांधीवादी, आजादी के सिपाही और लोहिया के साथी थे। हम लोग जो छात्र थे उन्हें भी उनका स्नेह मिलता रहता था और हम लोग उन्हे अपनी हर गोष्ठी में घसीट लाते थे। एक कोचिंग चलाने वाले राजीव जी तो हमारे संरक्षक जैसे थे और चंद्रदत्त जी उनके जीवन के खास अंग थे। राजीव जी ने हमें भी बहुत पोसा। पत्रकारिता जगत के कई बड़े नाम जैसे अंबरीष, नवीन जोशी, हरजिंदर, राजेंद्र तिवारी (आजकल भास्कर के स्थानीय संपादक), अमिताभ, प्रमोद जोशी, शिक्षक प्रमोद कुमार और भी कई सारे उन्हीं के स्कूल से निकले। लखनऊ में डीएवी, लखनऊ मॉंटेसरी, बालिका विद्यालय जैसे कई संस्थानों का संचालन उनके हाथों हुआ।पेपर मिल कालोनी के उनके अदना से मकान को देख कर कोई सोच भी नही सकता था िक कौन है यह आदमी। चंद्रशेखर जी को वह जब चाहे बुला लेते थे और कई बड़े नेता तो उनसे मिलने में गर्व महसूस करते। सरल थे। जिंदगी भर कुंवारे रहे। हम जैसे भी जाते तो खुद चाय बना पिलाते। मरते मरते देह मेडिकल कालेज को दान कर गये।

जब मैं पॉयनियर में चीफ रिपोर्टर था तो मेरे संपादक उदय सिन्हा ने एक बार मुझसे चंद्रदत्त जी का इंटरव्यू लेने को कहा और मैं गया। रात में मिल पाया खूब बात हुई और मैं तब कुंवारा था। चलते समय पूंछा खाना कहां खाओगे। जैसे ही मैंने कहा कि कमरे पर बना लूंगा चंद्रदत्ता जी ने वहीं रोक लिया और मैनें उनके हाथ की खिचड़ी खाई। मैं उन दिनो पॉयनियर में जूनियर था पहली बार मेरे जैसे की खबर एजेंडा नाम के साप्ताहिक परिशिष्टमें छपी। बहुत बाद में एक बार उदय जी के घर दीवाली महफिल में पूंछा िक क्यों मुझसे ही लिखवाया तो जवाब था कि अंग्रेजी के लोग कहां समझते हैं इन लोगों को।चंद्रदत्त तिवारी से आखिरी बार मुलाकात लखनऊ मॉंटेसरी एक फंक्शन में हुई। बीमार थे सो ज्यादा बोल नही पा रहे थे पर पुरानी जान पहचान थी सो काफी कुछ बोले। पत्रकारितासे नाराज थे, कहा केवल अंबरीष, एक्सप्रेस और इतवार को आने वाला नई दुनिया ही लिख पा रहा है सरकार के खिलाफ। जान कर खुश हुए िक मैं नई दुनिया के लखनऊ के प्रभारी योगेश मिश्रा को जानता हूं। नंबर लिया योगेश जी का, पता नही बात की या नही। मुझसे कहा कि कहां इंडियन एक्सप्रेस छोड़ बिजनेस स्टैंडर्ड में चला गया। पापी पेट का हवाला देने पर कहा कि इससे अच्छा तो बदरपुर से आने वाली गिट्टी बेंचो। आज नही रहे चंद्रदत्त जी तो यह सोचता हूं कि बच्चे को किस के बारें में बताउंगा िक इनने आजादी की लड़ाई लड़ी। कि ये दुर्गा भाभी के साथी रहे थे। क्या होगा लखनऊ मॉंटेसरी का। डीएवी तो पहले ही गर्त में जा चुका है। पर भरोसा है िक भाई देवेंद्र उपाध्याय जो अब सरकार के स्थाई अधिवक्ता हैं , साथी रमन पंत, राजीव जी, राजेंद्र, मसूद, और सबसे आगे अंबरीष जी उनके सपनों को मरने नही देंगे। न जाने क्ंयो अपने आखिरी दिनों में चंद्रदत्त जी कहते थे कि राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए। बड़ें कमिटमेंट के साथ कहते यह सब। न जाने राहुल में उन्हें क्या दिख रहा था। राज तो दफन हो गया न उनके साथ। लखनऊ िवश्वविद्यालय के प्रमोद कुमार जी से बात करने पर शायद कुछ पता चले।बस अब काफीसलाम चंद्रदत्त जी कोसागर थे वो और हम घड़े, और घड़े में घड़े जितना ही समाया

सिद्धार्थ कलहंस
लखनऊ