गुरुवार, 26 मार्च 2009

नींद क्यों रात भर नही आती

सिद्धार्थ कलहंस


बनारस की तंग गलियों वाले मोहल्ले बजरडीहा के कई पुराने बाशिंदे आजकल नींद न आने की वजह से परेशान हैं। कुछ एसा ही हाल मदनपुरा इलाके का है जहां डॉक्टरों के यहां अनिद्रा की शिकायत करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। दर असल इन दोनो इलाकों के पुराने लोग हमेशा करघे की खटपट की लोरी सुन कर सोया करते थे। करघे की खटपट कहीं गायब हो गयी है तो कहीं मध्यम पड़ गयी है। डॉक्टरों का कहना है कि बाडीक्लाक में परिवर्तन नींद पर ही सबसे पहले असर डालता है सो यहां लोगों को नींद न आने की बीमारी आम हो गयी है।शिव की नगरी बनारस में इन्हीं दो मोहल्लों में कभी 10000 से ज्यादा करघे थे और कुंजगली,नीचीबाग व गोलघर में बुनकर माल लेकर खुद आते थे और सट्टी पर माल बेंचा करते थे। सिल्क िनयार्तक रजत सिनर्जी का कहना है कि सट्टी कारीगर और खरीददार के बीच सीधा संवाद स्थापित होने का बड़ा जरिया था। यहां सट्टी लगवाने वाला बड़ा दुकानदार सौदा तय होने पर 3.25 फीसदी कमीशन ले लेता था।
आज गोलघर के सबसे बड़ी सट्टी वाले कारोबारी ब्रजमोहन दास का काम ठप्प जैसा ही है। कमोबेश यही हाल बाकी सट्टी लगवाने वालों का है। नीचीबाग के हैंडलूम साड़ी बेंचने वाले राजेश गुप्ता से कारोबार का हाल पूंछा तो दाशर्निक सा जवाब दिया कि बाजार की चला-चली की बेला है। उनका कहना है कि कारीगर के पास काम नही है और व्यापारी के पास आर्डर नही।
इस तरह धंधा कब तक चलेगा। मदनपुरा मोहल्ले में जब हमने बुनकरों से संवाद स्थापित करना चाहा तो पता चला कि कई सारे लोग दश्शवमेध घाट के ठीक पहले मंडी में अंडा बेंचकर गुजारा कर रहे हैं। तो कुछ लोग घाटों पर आने वालों को भेल पुरी बेंच कर पेट पालने में लगे हैं। एसे ही एक बुनकर स्वालेह मियां से बात की तो पता चला कि धंधा खात्मे की ओर है। उनका कहना है कि हैंडलूम का मुशि्कल काम करुवा बूटी करने वाले कारीगर को 100 रुपए रोज की मजदूरी पाना आसान नही है। इसके ठीक उलट ईंट ढोने वाला अकुशल मजदूर दिन भर में 130 रुपए घर ले जाता है। इन हालात में करघे पर कारीगर क्यों रुकेगा।

गुरुवार, 5 मार्च 2009

मैं और मेरी तन्हाई

घरों को छोड़ कर तन्हाइयाँ कहां जाएं,
निकल से जिस्म से परछाईयाँ कहां जाएं।

जहां भी जाऊं मेरे साथ-साथ जाती हैं,
मेरे बगैर ये रुसवाईयां कहां जाएं।

ये किस तलाश ने पागल सा कर दिया है इन्हें,
भटक रही हैं जो पुरवाईयाँ कहां जाएं।

दोस्त भारत भूषण पंत आपको सलाम

बुधवार, 4 मार्च 2009

मंदी में भी फलेगी झंडी

चुनावी सहालग में हजारों के चूल्हे भी जलेंगे

सिद्धार्थ कलहंस

लखनऊ, 4 मार्च
चुनाव आते ही दुकानें सज गयी हैं और हजारों के लिए रोजगार भी मुहैय्या हो रहा है। चुनावी प्रचार के सामानों के लिए मशहूर लखनऊ और कानपुर के कारोबारी मंदी के इस दौर में भी अच्छी कमाई के बारे में आश्वस्त हैं। उनका मानना है कि चुनाव आयोग की सख्ती के चलते लोग बड़ी होर्डिंगों के बजाए बिल्ला, बैनर और झंडे को तरजीह देंगे। चुनाव आयोग का खौफ माहौल में इस कदर तारी है कि मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी के आने की खबर सुनते ही मंगलवार रात से सारा प्राशासनिक अमल होर्डिंगों को हटाने में चुट गया। चुनाव प्रचार का सामान तैयार करने वालों का मानना है कि इस बार अकेले उत्तर प्रदेश में 81 लोक सभा सीटों में हर एक पर कम से कम 50 लाख रुपए की प्रचार सामाग्री हवन होगी। दिल्ली और पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश व बिहार से मिलने वाले आडर्र को जोड़ लें तो इस साल का कारोबार 140 करोड़ रुपए को पार कर जाएगा।

कारोबारियों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार का सामान बाकी राज्यों के मुकाबला खासा सस्ता है और यही वजह है कि दिल्ली से लोग यहां आकर खरीददारी करते हैं और आर्डर देते हैं। मसलन लखनऊ में कपड़े का झंडा 2 रुपए से शुरु होकर 14 रुपए तक मिल जाता है जबकि यही झंडा दिल्ली में कम से कम 4 रुपए का मिलता है। लखनऊ में स्टीकर 80 पैसे का मिल रहा है और परचे तो 300 रुपए में एक हजार छप जाते हैं। कपड़े का बैनर यहां 28 रुपए और फ्लेक्स का बैनर 55 रुपए मीटर बन जा रहा है। चुनावी सामान के कारोबारी सोहन लाल जायसवाल का कहना है कि बोर्ड की परीक्षा चल रही है इस लिए उम्मीदवार माइक नही प्रचार सामाग्री के भरोसे ज्यादा हैं। उनका कहना है कि पार्टी के चुनाव निशान वाली साड़ी जो 70 रुपए में मिल रही है ज्यादा डिमांड में रहेगी।

लखनऊ के एक और बड़ी विज्ञापन एजेंसी के मालिक रजत श्रीवास्तव का कहना है कि मंदी के बावजूद लोगों का चुनावी खर्च बढ़ा है और इसी से कारोबार भी बढ़ेगा। उनका कहना है कि बहुजन समाज पार्टी ने एक साल पहले ही अपने प्रत्याशी तय कर दिए जिसके चलते चुनाव से पहले ही प्रचार का सामान बिकने लगा।

रविवार, 1 मार्च 2009

भाई खोजो काले बंदर को

अब खेल काले बंदर का

सिद्धार्थ कलहंस


माडिया जगत के मेरे दोस्तों कल एक फिल्म देखने गया नाम थी दिल्ली 6. बेटे ईशान का कहना था कि पापा मश्कअली वाला गाना इसी में है। गाना सुना था और पुराना लखनउवा तो कबूतरों का शौक भी सो चला गया। अभिषेक बच्चन बढिया लड़का है। काफी अच्छा काम है उसका। भाई ज्यादा प्रस्तावना लिखने का मन नही। जो मैं कहना चाहता हूं सुन लो। फिल्म में एक काले बंदर का जिक्र है जिसने दिल्ली में आतंक मचा रखा है। दारु की फिक्र थी और जल्दी घर जाने की भी सो फिल्म मे मन कम लग रहा था। अचानक स्क्रीन पर आईबीएन 7 दिखा और एक काले बंदर का जिक्र। आंखे खोल कर बैठ गया। फिर तो सारी फिल्म काले बंदर के आगे पीछे। राकेश मेहरा एक मायनें में बेहतर फिल्मकार हैं। सुपर इंपोजकर फिल्म को ताकत वो देते हैं। मैंने अक्स देखी फिर रंग दे बसंती और अब दिल्ली 6। मेरे पुराने दोस्त आकाश वर्मा के पिता रवीन्द्र वर्मा ने एक बार उनकी तारीफ की। पता नही क्यों उन जैसा होना चाहा पर हो न सका। खैर उन फिर कभी बात होगी। अभी बात काले बंदर की। काला बंदर दिल्ली में आतंक मचा रहा था और आखिर में जैसा फिल्मों में होता है वही हुआ। नायक काले बंदर का लबादा पहन नायिका को जकड़ता है और फिर लबादा हटाता है। उधर पुरानी दिल्ली में काले बंदर को लेकर दंगा मचा है। कोई उसे हिंदु तो कोई मुसि्लम करार दे रहा है। है न रोचक बात। जानवर का गर धर्म हो तो क्या कहना सुअर मुसि्लम इलाके में जाए तो मार दिया जाए और गाय पर खरोंच लग जाए अपने लखनऊ के चौक इलाके में तो बम चल जाए। पर जानवर ता खमोश हैं। कोई जात नही धर्म नही। काले बंदर की भी कोई जात नही। अंत में फिल्मकार कहता है कि अपने अंदर का काले बंदर को पहचानो। मीडिया ने बनाया काले बंदर को। आज जब हम से कहा जा रहा है कि अपने अंदर के काले बंदर को पहचानो तो गिरेबान में झांकना पड़ रहा है।पत्रकारों एक बड़ी आसान बात कि हम कह दें कि साले ये टीवी वाले ये सब नाटक करते हैं पर जरा सोचें। कभी बाईलाइन के दबाव में कभी संपादक के जोर पर कितनी बार खुद काला बंदर बनाते हैं और हर बार खुद भी बनते हैं। टीवी तो आसमान से नही टपका है और वहां बड़े निर्णायक पदों पर वही लोग हैं जो हमारे बीच से गए हैं। हम प्रिंट मीडिया के लोग सबसे बड़े काले बंदर हैं जो समाज में खौफ भी भरते हैं और कौतूहलता भी।दोस्त मैं देश के बड़े अखबार में संवाददाता था और वहां जाने के बाद सबसे पहले मेरी एक खबर छपी पहले पन्ने पर आल इंडिया। खबर के लिए मैं भी काला बंदर बना और काले बंदर को बनाया भी। बता नही पा रहा हूं क्योकि अभी 40 का हूं और कई साल चाकरी करनी है। पर एक बात कि एक बकवास सी खबर आज भी मेरे नाम पर हर सर्च इंजन पर सबसे ज्यादा हिट के तौर पर मिलेगी। बड़ा खुश था मैं कि देखो देश विदेश के कितने लोग फोन कर रहे हैं खबर के बारे में। लंदन के एक चैनल ने तो इंटरव्यू तक ले डाला हमारा। मगर आज हम शमिर्दां हैं कि काला बंदर जिंदा है।कल ही मेरे बगल में एक बड़ी प्रेस वार्ता में मध्य प्रदेश के एक बड़े अखबार के साथी संवाददाता बैठे थे। एक सनसनी की बात बताने लगे। अचानक उनका गोरा सुंदर चेहरा मुझे काला लगने लगा। थोड़ी देर में वही काला चेहरा बंदर की शक्ल में बदल गया। मैं उठा जाकर अपने मित्र अंबरीष को फोन किया बात किसी और बिषय पर की कैसे भी काले बंदर से छुटकारा पाना था। मेरे ब्लागर दोस्तो आप मदद करो। जब ब्लाग बनाया तो संजीत भाई तुरंत मदद को आए पहली पोस्ट का लोगों नें खूब स्वागत किया तो दोस्तों अब बताओ। जहां जा रहा हूं हर कोई काला बंदर दिख रहा है। हद तो तब हो गयी जब कल शेव बनाते समय खुद की शक्ल जो भगवान की दया से सांवली सी है काली दिखने लगी और फिर एक बंदर भी दिखने लगा। डर के मारे अंदाज से शेव बना डाली। अब क्या करें भाई काला बंदर तो हर जगह है। नही जाने वाला है वो इस दुनिया से। मेरी गुजारिश है दोस्तों खोजो काले बंदर को मिटाओ नही उसको बस पिंजरें में डाल दो। पुरानी कहावता है कि आग का डर बना रहे इस लिए पानी का रहना जरुरी है। पर हमारे अंदर के काले बंदर को भगा दो भाई। बच्चों को न बताना डर जाएंगे।