बुधवार, 4 अगस्त 2010

न गवाही, न सुनवाई, बस विभूति हो गए अपराधी

प्रगतिशीलता की होड़ है, हो सको तो हो : गोली ही मारना बाकी रह गया है विभूति नारायण राय को। बसे चले तो भले लोग वह भी कर डालें। प्रगितशीलता के हरावल दस्ते की अगुवाई की होड़ है भाई साहब। न कोई मुकदमा, न गवाही और न ही सुनवाई। विभूति अपराधी हो गए। सजा भी मुकर्रर कर दी गयी। हटा दो उन्हें कुलपति के पद से। साक्षात्कार पर विभूति ने सफाई दे दी। पर प्रगतिशील भाई लोग हैं कि मानते नहीं। सबकी बातें एक हैं- बस विभूति कुलपति पद से हटा दो।
लगता है बहस सबसे पहले इस बात पर आ गयी है कि 'छिनाल' शब्द का इस्तेमाल उतना अपमानजनक नहीं है, जितना यह कि कुलपति विभूति ने ये कहा। कईयों को तो मैं खुद जानता हूं जो इसी बहाने से अपना हिसाब निपटाने में जुट गए हैं। बयानबाजों में ज्यादातर ने तो साक्षात्कार पढ़ा नहीं पर जुबान चला डाली। कहीं प्रगतिशील होने की होड़े में पीछे न रह जाएं। विभूति लेखक भी हैं और ज्यादा जाने उसी वजह से जाते हैं। अमां कम से कम उन्हें अपनी बात कहने का हक तो दो। भत्सर्ना करो जम के करो। बोलने तो दो कि फासीवादियों की तरह जुबान पर भी ताला लगा दोगे।
कइयों का ये भी कहना है कि जिन्हें विभूति से फायदा लेना है, वो पत्रकार विभूति की चमचागिरी में लगे हैं। भाई, हमें न उनसे कुछ मिलना न पाने का मैं पात्र हूं। पर इतना जरूर कहूंगा कि विभूति को भी किसी की तरह अपनी बात कहने का हक है। क्या याद दिलाना होगा कि कब कब किस बड़े आदमी ने इससे भी घटिया शब्दों का इस्तेमाल साक्षात्कार या भाषण में किया है।
विभूति के विरोध पर लखनऊ विश्वविद्यालय की कुलपति रहीं रूपरेखा जी ने कहा कि अपने लेखन में सिर्फ स्त्री की देह को दिखाना मर्दवादी छवि को बढ़ावा देता है। भाई पूरी बात यहीं पर तो है कि विभूति स्त्री देह के इस्तेमाल के जरूरत से ज्यादा चित्रण पर बोल रहे हैं। बिस्तर की बातों से पन्ने रंगे जा रहे हैं। इसी को लेकर विभूति की आपत्ति है। शब्द गलत हो सकते हैं या साक्षात्कार लिखने में उनका इस्तेमाल, पर बाकी विभूति कहां गलत हैं!