बुधवार, 29 अप्रैल 2009

चल खुसरो घर आपने

सिद्धार्थ कलहंस


मैं कोई नजूमी नही और न ही मेरे पास अरबी परी कथाओं में बताया जाने वाला हाजराती शीशा है। पर इस सब के बावजूद दीवारों पे लिखी इबारत को पढ़ना मुझे बखूबी आता है। पूंछता हूं आप सबसे। क्या है नया इस चुनाव में। जवाब अलग-अलग हैं। पोस्टर बैनर गायब हैं। लाउडस्पीकर का शोर गुम है। कुछ कहते हैं कि कंडीडेट परेशान नही कर है चुपचाप प्रचार हो रहा है।सच ही कहा है साधो ये मुरदों का गांव। कोई एक बड़े बदलाव को न देख पा रहा है न सुन। या यों कहें कि नजर ही नही जा रही इस चुप्पे बदलाव पर जो आहिस्ता-आहिस्ता दाखिल हो रहा है।सर्वे, कड़े पहरे के बाद भी जो हुए, नेताओं के नेप्थय में दिए गए बयान और खबर नवीसों की चांडूखाने में की गयी गपशप में एक बात उभर कर आ रही है। कांगेस और बीजेपी इंप्रूव कर रहे हैं। अब असल पेंच यही है। क्या कुछ कर डाला इन दोनो राष्ट्रीय दलों ने जो थोड़ा सुधार होगा इनके प्रर्दशन मेंअरे इनकी करनी तो जैसी है उस हिसाब से और नीचे जाना चाहिए पर नही हो रहा न।दो दशक से क्षेत्रीय दलो की करामात देख रही है प्रदेश की जनता। इसी दौरान मंडल, कमंडल और जाने क्या-क्या गुजर गए यूपी की छाती से। विकास का नाम नही, दबाव की राजनीति, दलबदल, गुंडाराज, ठेका पट्टा, पढ़ाई का सत्यानाश, उद्योगों का पलायन, प्रतिभा का पलायन, भाई भतीजावाद और सबसे बड़ा भ्रष्टाचार। गर सीटों बढ़ जाएं और त्रिशंकु लोकसभा हो तो वहां भी सौदेबाजी। आखिर कभी तो अंत होना था। गली मोहल्लों, चौरोहों, नुक्कड़ पर खड़े लोग, चाय बीड़ी फूंकते गरीब, ठंडे दफ्तरों में अलसाते लोग और व्यवस्था के प्रति गुस्से से भरे लोग अब क्षेत्रीय नही राष्ट्रीय दलों के साथ जाने की बात कर रहे हैं। बेड़ा गारद हो इन राष्ट्रीय दलों के रहनुमाओं का जो दीवार पर लिखी इबारत को न पढ़ सके। उलटबासियों और कोरी लफ्फजी में भरमाते रहे। जेपी की संपूर्ण क्रांति के बाद जनमानस में उपजे इस उफान को न भुना सके। शायद नैतिक साहस नही होगा कि जनता के दिल तक जा सकें और उसकी भी आंखों मे आंखें डाल बात कर सकें।पर हे अपंग, लाचार और बीमार दिमाग हमारे राष्ट्रीय दलों के रहनुमा जनता के क्रोध के चलते तुम्हें मिलने वाली बढ़त मुबारक।