रविवार, 27 सितंबर 2009

राहुल के चलते कस्बाई पत्रकार हुए वीआईपी



सिद्धार्थ कलहंस
अरसे बाद उत्तर प्रदेश में ये हुआ कि गांधी परिवार का चश्मोचिराग कीचड़ भरी कच्ची सड़के नाप चुपचाप गांवों में पहुंचा। बिना किसी शोर-गुल और तमाशे के। गांव में छप्पर के नीचे मजमा लगाया। दलित के घर भेली खा पानी पिया। रात साहू की दुकान से आनन-फानन में मंगा कर बनायी गयी आलू परवल की तरकारी खायी और बंसखट पर सो रात गुजारी।वाकया ये देश भर के अखबारों की सुर्खी बना और चैनलों का विशेष। पर मीडिया जगत में कुछ एसा नया हुआ जो अमूमन कभी नही होता। बड़ा पत्रकार, लखनऊ या राज्यों की राजधानी वाला थोड़ा छोटा और जिले व कस्बे वाला तो बेचारा मच्छर। बड़े स्वनामधन्य तो सीधे मुंह बात भी नही करते। इन जिले वाले बेचारों की याद तभी आती है जब बड़ा पत्रकार उनके इलाके का दौरा करता है। तब इनका काम रास्ता दिखाना या बैकगाउंडर देना होता है।मगर राहुल गांधी के मामले में तो कमाल हो गया। बिन बताए राहुल आ धमके। बस वायरलेस पर खबर थी कि राहुल अब हैदरगढ़, बाराबंकी और अब श्रावस्ती। राजधानी के बड़के पत्रकार परेशान क्या करें। एसे में वही जिलाई पत्रकार याद आए दनादन फोन घूमने लगे। बोसीदा पुरानी डायरियां जिला सूचना अधिकारी और अखबारों में जिला डेस्क देखने वाले जरिया बने फोन नंबर देने का । आमदिनों में सीधे मुंह बात न करने वाले बड़े पत्रकार आज जिलों वालों को भाई साहब कह पुकार रहे थे। क्या लोकेशन है राहुल की, कहां रुके, किससे मिले, क्या कहा, कौन साथ में है। शाम होते-होते सब्र का पैमाना छलक उठा। नेपाल की तलहटी में बसे उत्तर प्रदेश के सीमा के आखिरी जिले के एक गांव तेलहार में राहुल और लोकेशन किसी को नही। कुछ राजधानी के भाई लोगों ने गुरुवार की सुबह अखबारों के पहले पन्ने पर राहुल को सकुशल सुल्तानपुर के गेस्टहाउस पहुंचा दिया था। पर सुबह होते ही सब पर पानी फिर गया। राहुल तो वहीं गांव में ही रुक गए। खबरिया चैनल वाले सुबह रवाना होने की तैयारी में ही थे कि खबर आयी राहुल चल दिए। बारास्ते अमौसी दिल्ली जा रहे हैं। इतनी बड़ी घटना और कहीं कोई कोट नही, बाइट नही। बस काम आए तो वही जिलाई पत्रकार और कस्बे के संवाद सूत्र। अमर उजाला के श्रावास्ती संवाददाता सतीश तो मानों हीरो हो गए। समय नही उनके पास। एक फोन छूटे तो दूसरा कान पर। सबकी खबर के वही स्त्रोत। गांव के इकलौते इंटर पास और कैमरा फोन धारी रामजन्म के पास सैकड़ों मुनहार। जिले के पत्रकार आज वीआईपी हो गए। आज श्रावस्ती के पत्रकारों के नंबर हर बड़े राजधानी के रिपोर्टर के मोबाइल में दर्ज है।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

माई नी माई मुंडेर पे नाही दीख रहा है कागा

सिद्धार्थ कलहंस


लखनऊ

पितरों के श्राद्ध का आज आखिर दिन था। भूले बिसरे पितरों को तर्पण करने के लिए आज का दिन मुकरर्र किया गया था। उनके लिए जिनकी तिथियां याद न रह गयीं हों। उन सब का तर्पण आज के ही दिन करते हैं। पितरों का तर्पण तब तक अधूरा है जब तक कागभुशुण्डी जी महाराज को अन्न न खिला दें।


लखनऊ में गोमती से लेकर तालाबों, पोखरों, कुओं और यहां तक कि कॉलोनियों के हैंडपंपों तक पर श्राद्ध कर पितरों को तर्पण करने वालों की भीड़ थी। श्राद्ध के सारे अनुषष्ठान पूरे हो रहे थे पर नही मिल रहे थे तो बस कौवे। कहा गया है कि अन्न अगर कौवे ने खा लिया तो खाना सीधे पितरों के पेट में पहुंचता है। कौवों की तलाश शहर के हर कोने में हो रही थी । मगर कौवे थे कि मानों बिला गए थे। लखनऊ की 40 लाख की आबादी को कौवे खोजे नही मिल रहे थे। लोग मन मसोस कर रह गए कि पितरों को कहीं भूंखा न रहना पड़े। कुछ तो अनिष्ट की आशंका से भी ग्रस्त दिखे।


पर इसका भी इलाज यहीं मौजूद था इसी शहर में। राजधानी लखनऊ के अवैध चिड़िया बाजार नक्खास में आज मांग तीतर, बटेर या लकी कबूतर की नही थी। आज यहां कौवे हॉट सेलिंग केक थे। ककौवे पिंजरों में बंद थे और उनके चारो तरफ खरीददारों की भीड़ थी। बेंचने वाले मोल-भाव करने को भी न तैयार थे। जो मांगा वही दो नही तो आगे बढ़ो। कुछ एसा ही भाव था भाई लोगों के चेहरों पर।


कौवे 800 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक की कीमत में बिके और जम के बिके। आज के दिन काले तीतर पर काला कौवा भारी था। हालांकि चिड़िया बाजार के पुराने चिड़ियाफरोश हबीबुल्लाह का कहना है कि आज कल वैसे ही कौवे मंहगी कीमत में बिक रहे हैं। उनका कहना है कि नामर्दी के शिकार भी कौवे का गोश्त खाकर खुद को जवां महसूस करते हैं।

पुराने ललखनऊ के कई हकीम तो आजकल बूढ़ों को कौवे का गोश्त खिला कर फिर से जवानी के अखाड़े में उतारने का दावा करते हैं। डालीगंज के हाजी हकीम मोहब्बत हुसैन एनुद्दीन जरार्ह का कहना है कि कौवे के गोश्त में जो गर्मी होती है वो ढीली नसों को खोल देती है और जवान कर देती है।