रविवार, 5 जुलाई 2009

हम जिएं तुम जियो, एनजीओ

हम जिएं तुम जियो, एनजीओ
सिद्धार्थ कलहंस
लखनऊ
पुराने दोस्त थे एक हमारे अचानक मेलजोल कम कर दिया। मैं भी परेशान कि बात क्या हो गयी। क्या गुस्ताखी हो गयी। खैर कोई हाल नही पता चला न ही किसी ने बताया कि हमारे दोस्त कहां गए। बाद में पता चला कि एनजीओ को पकड़ लिया है और आज कल मौज में हैं। वो काफी दिन बाद पकड़ में आ ही गए। यूपी प्रेस क्लब में बिरयानी बहुत बढ़िया मिलती है। वहीं पकड़ में आ गए वो हमारे मित्र। कभी लेफ्ट वाले थे सो मिलने पर तपाक से बातचीत शुरु कर देते थे। मैंने जब जम के सुनाई तो एनजीओ की महिमा बताई। बोले काम बढ़िया चल रहा है बस यार तुम पत्रकार हो गए हो तो ज्यादा क्या बताना बस मौज चल रही है। वो साथी कार में बैठ रवाना हुए और मैने साथ बैठे पीटीए के अपने मित्र अभिषेक को ये जुमला सुनाया। हम जीएं तुम जियो, एनजीओ।

बात कोई पांच साल पुरानी है। अभी चंदे पर चलने वाली और एन जी ओ के गर्भ से उपजी एक वेबसाइट पर आलोक तोमर का एक लेख देखा। तमतमा गए
आलोकजी चोर हैं। लेख चुराते हैं। कई बड़े पत्रकार उन पर आरोप लगा रहे हैं। भई मैं तो लखनऊ जैसे चपंडूक शहर का बाशिंदा पता ही नही आज कल कौन सी स्वानामध्न्य लोग पड़ारकर की थाती को आगे ले जा रहे हैं। हां आलोक तोमर पर चोरी का इल्जाम लगा तो जरुर अपने 100 किलो के शरीर में हरकत हो गयी। फिर तो सारे मामले पर गए। कमेंट पढ़े और आलोक जी का विस्फोट पर जवाब भी पढ़ा। जवाब तो किसी भी मध्यकालीन ठाकुर घराने के आदमी जैसे ही लगा। मगर मुझे फिर वही याद आया कि हम जिएं तुम जियो-एनजीओ.
आलोक जी क्यो परेशान होते हैं आप जब कोई दो गुमनाम आपको कहीं घसीटते हैं। आसमान में थूकने दो न उनको। उन पर ही गिरेगा।और गिर ही रहा है।लोग चंदे पर वैबसाइट चलाते हैं तो चलाने दो न। अरे रोजगार से तो लगे हैं। उनके लिए तुम जियो। और उनके खुद के लिए एनजीओ।और हम तो जी ही रहे हैं।

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