शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

माई नी माई मुंडेर पे नाही दीख रहा है कागा

सिद्धार्थ कलहंस


लखनऊ

पितरों के श्राद्ध का आज आखिर दिन था। भूले बिसरे पितरों को तर्पण करने के लिए आज का दिन मुकरर्र किया गया था। उनके लिए जिनकी तिथियां याद न रह गयीं हों। उन सब का तर्पण आज के ही दिन करते हैं। पितरों का तर्पण तब तक अधूरा है जब तक कागभुशुण्डी जी महाराज को अन्न न खिला दें।


लखनऊ में गोमती से लेकर तालाबों, पोखरों, कुओं और यहां तक कि कॉलोनियों के हैंडपंपों तक पर श्राद्ध कर पितरों को तर्पण करने वालों की भीड़ थी। श्राद्ध के सारे अनुषष्ठान पूरे हो रहे थे पर नही मिल रहे थे तो बस कौवे। कहा गया है कि अन्न अगर कौवे ने खा लिया तो खाना सीधे पितरों के पेट में पहुंचता है। कौवों की तलाश शहर के हर कोने में हो रही थी । मगर कौवे थे कि मानों बिला गए थे। लखनऊ की 40 लाख की आबादी को कौवे खोजे नही मिल रहे थे। लोग मन मसोस कर रह गए कि पितरों को कहीं भूंखा न रहना पड़े। कुछ तो अनिष्ट की आशंका से भी ग्रस्त दिखे।


पर इसका भी इलाज यहीं मौजूद था इसी शहर में। राजधानी लखनऊ के अवैध चिड़िया बाजार नक्खास में आज मांग तीतर, बटेर या लकी कबूतर की नही थी। आज यहां कौवे हॉट सेलिंग केक थे। ककौवे पिंजरों में बंद थे और उनके चारो तरफ खरीददारों की भीड़ थी। बेंचने वाले मोल-भाव करने को भी न तैयार थे। जो मांगा वही दो नही तो आगे बढ़ो। कुछ एसा ही भाव था भाई लोगों के चेहरों पर।


कौवे 800 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक की कीमत में बिके और जम के बिके। आज के दिन काले तीतर पर काला कौवा भारी था। हालांकि चिड़िया बाजार के पुराने चिड़ियाफरोश हबीबुल्लाह का कहना है कि आज कल वैसे ही कौवे मंहगी कीमत में बिक रहे हैं। उनका कहना है कि नामर्दी के शिकार भी कौवे का गोश्त खाकर खुद को जवां महसूस करते हैं।

पुराने ललखनऊ के कई हकीम तो आजकल बूढ़ों को कौवे का गोश्त खिला कर फिर से जवानी के अखाड़े में उतारने का दावा करते हैं। डालीगंज के हाजी हकीम मोहब्बत हुसैन एनुद्दीन जरार्ह का कहना है कि कौवे के गोश्त में जो गर्मी होती है वो ढीली नसों को खोल देती है और जवान कर देती है।

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